बुधवार, 30 दिसंबर 2009

वर्ष २०१०

नव वर्ष की मंगलकामनाएँ वर्ष २०१० आप एवं आपके परिवार के लिए सुखदायक हो

शुक्रवार, 11 दिसंबर 2009

कल पर मत टालो

पांचवीं कक्षा । शिक्षक ने कक्षा में प्रवेश किया । सम्मान में बच्चे खड़े हुए । शिक्षक ने बैठने का निर्देश दिया । सभी बच्चे बैठ गए । शिक्षक ने बच्चों से कहा -"आज होमवर्क जाँचने की बारी है । आइए ! आपकी उत्तर पुस्तिकाओं की जाँच करें ।" एक-एक करके बच्चों ने अपनी नोट बुक दिखाई । शिक्षक ने लिखित कार्य का मूल्यांकन किया। अब सतीश की बारी थी । सतीश ने पास आकर कहा -"सर ! मैंने आज काम नहीं किया । कल कर लूंगा ।" शिक्षक ने सतीश को समझाते हुए कहा कि कोई भी काम कल पर मत टालो । कल कभी नहीं आता है । शिक्षक ने बच्चों से कहा -"चलिए आज आपको समय का महत्त्व बताते हैं ।" उन्होंने कहा कि सभी कार्य समय पर होने चाहिए। अगर सूर्य समय पर उदय नहीं हो तो हम अंधेरे में रहेंगे । ऋतुएं समय पर नहीं आएंगी तो न समय पर बर्षा होगी और न ही समय पर फसल। प्रकृति का चक्र ही बदल जाएगा। सर्दी-गर्मी भी समय पर नहीं आएंगी। हम अपने दैनिक जीवन में समय पर काम नहीं करते हैं तो हमें परेशानियों का सामना करना पड़ता है । अगर हम रेल्वे स्टेशन अथवा बस स्टाॅप पर समय पर नहीं पहुँचेंगे तो गाड़ी-बस निकल जाएगी । हम जिस काम से जा रहे थे उससे वंचित रह जाएंगे । इसी प्रकार आज का काम कल पर छोड़ने से हमें समस्याओं का सामना करना पड़ेगा । यह बात भी है कि आज का दिन जैसा है हो सकता है कल का दिन वैसा नहीं हो । दूसरी बात यह भी है कि आज का काम कल पर छोड़ने से आलसी हो जाता है । धीरे-धीरे काम की मात्रा बढ जाती है और उस काम को करने के लिए हमें अधिक समय, श्रम और शक्ति की आवश्यकता होती है । समय पर काम न करके कल पर टालने से यह हमारी आदम में समाहित हो जाता है और हम सभी कार्य कल पर टालने लगते हैं । एक बार बीता हुआ समय वापस नहीं आता । अतः हमें अपना समय बिना नष्ट किए सभी कार्य समय पर करने चाहिए । सभी बच्चों ने शिक्षक से संकल्प किया कि अब जो भी कार्य हमें सौंपा जाएगा वे समय पर पूरा करेंगे ।

शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

तीर्थ बड़ा कि सेवा

एक समय की बात है । एक प्रचलित कथा है । एक महात्मा ने तीर्थ यात्रा करने की सोची और चल पड़े । रास्ते में वे एक मन्दिर में रूके । रात हो गई । वे उसी मन्दिर में सो गए । नींद में स्वप्न में उन्हें एक आवाज सुनी । कोई कह रहा था- ‘तीर्थ का फल तो घर बैठे ही मिल सकता है बशर्ते कि मनुष्य सात्विक तथा निर्लोभी हो जैसा कि केरल का एक ग्रामीण रामू है । वह जूते गाँठ कर अपना तथा अपना परिवार चलाता है । तीर्थ यात्रा पर नहीं गया फिर भी उसे तीर्थ यात्रा का लाभ मिल गया । महात्मा ने तीर्थ यात्रा का विचार स्थगित कर रामू से मिलने की सोची । महात्मा ने घूमते-घूमते रामू को खोज लिया । उसेने रामू से तीर्थ यात्रा पर जाने की चर्चा की । रामू ने प्रणाम किया और कहा -‘‘ महात्माजी, आप मेरे घर पधारे । मुझे तो तीर्थ यात्रा का फल इससे ही मिल गया । उसने आगे कहा कि उसने भी तीर्थ करने की सोची थी । अपना तथा पत्नी का पेट काट कर पैसे जोड़े ताकि तीर्थ यात्रा पर जा सकूं , किन्तु उस समय मेरी धर्मपत्नी के बच्चा होने वाला था। पड़ौसी के घर में मैथी की सब्जी बनी थी । मेरी पत्नी को उस सब्जी की सुगन्ध आई और उसने मुझे सब्जी लाने को कहा । मैं पड़ौसी के घर गया और थोड़ी सब्जी देने का निवेदन किया । पड़ौसी ने सब्जी को अपवित्र बताते हुए कहा कि लेना चाहो तो ले लो। उसने यह भी कहा कि बच्चे भूखे थे । इसलिए श्मसान से मैथी के पत्ते तौड़ कर सब्जी बनाई है इसलिए अपवित्र है ।‘‘ रामू ने कहा कि पड़ौसी की इतनी दयनीय हालत देखकर इकट्ठे किए हुए रुपए उसे दे दिए । पडौसी को सुख मिला इसलिए तीर्थ का फल तो घर बैठे ही मिल गया ।
महात्माजी रामू को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गए । आगे जाकर उनी भंेट तुलाधर नामक एक विद्वान से हुई । महात्माजी ने उससे भी तीर्थ के बारे में चर्चा की । तुलाधर ने कहा कि उसके गांव में न जाने कितने भूखे हैं, कितने गरीब और बीमार हैं। अगर मेरे पास पैसा है तो मैं पहले उनके दुख-दर्द को दूर करने में खर्च करना ज्यादा ठीक मानता हूँ क्योंकि मानव सेवा से बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है ।मेरी तो तीर्थ यात्रा दीन-दुखियों की सेवा करना है ।
महात्माजी उसके विचारों से बड़े खुश हुए । उन्होंने तुलाधर को अपना गुरु माना और मानव-सेवा में जुट गए ।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

समै रो सांच

एक अधेड़ उमर रो हटो-कटो आदमी हो । उणनै आपरै सरीर पर घणो घमण्ड हो । उण रे गांव मांय ही एक मंगतो रेवतों । बो मांग‘र खुदरो पेट भरतो । एक दिन एक मोटर भीड़नै गिरग्यो । उण री आंख फूटगी अर आंधों होग्यो पण बो मांगणों नीं छोड़्यो। होळै-होळै बो बुढ़ापै रै साथै-साथै बीमार भी रेवणै लागग्यो । उण रो सरीर जबाब देवणै लागग्यो । एक-एक हाडी-पांसळी दिखणै लागगी । भीख मांगणी अब भी नीं छोड़ी । लोग-बाग उणनै देखता । बो अधेड़ भी देखतो । एक दिन अधेड़ रे मन मांय दया आई अर बो मंगतै रे कनै जाय‘र बोल्यो - अरे बाबा ! तेरी हालत घणी खराब है । तेरो ओ जीणो जीणो थोड़े ही है । फेर भी तूं मांगतो रेवै । भगवान भी इतो निर्दयी है कै तनै मौत नीं देवै । तनैं तो भगवान सूं अरदास करनी चाहिजै को बो तनै बुला लेवै । अधेड़ री बात सुण‘र मंगतो बोल्यो - बेटा ! म्हे भी थारी आ ही सोचूं अर रोज भगवान नै हाथ जोड़‘र कैवूं कै भगवान म्हनै इण धरती सूं उठा ले पण भगवान मेरी बात सूणै नीं । सायद बो म्हनै देखण वाळा नै आ महसूस कराणै चावै कै एक दिन उणरी भी हालत इसी होय सकै । अधेड़ नै हियै च्यानणो होग्यो कै बैर भाव अर घमण्ड नै भूल ‘र जीवणै मांय ही सार है । समै एक जिस्यो नीं रवै ।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

कहानी - स्वर्ग का मार्ग

चार दोस्त थे । एक गांव में रहते थे । उनमें एक धनी, एक गरीब, एक विद्वान तथा एक किसान था । वह अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था । धनी व्यापार करता था, व्यापार के दौर न वह ग्राहकों से धोखाधड़ी करता, बाजार में काला बाजारी करता । अपने इन पापों को धोने के लिए वह खूब दान-पुण्य करता । गरीब मेहनत-मजदूरी कर अपना तथा अपने परिवार का पेट पालता । वह ईमानदारी से काम करता । लोगों की जरूरत में उनकी मदद करता । विद्वान उपदेश देता । भगवान को प्राप्त करने मार्ग बताता । रोजाना मन्दिर जाता । वहाँ सुबह-शाम दीपक जलाता । उपदेश देने के बदले वह लोगों से मोटी रकम लेता । किसान खेती से अपनी आजीविका चलाता । जब खेती का कार्य नहीं होता तब अपनी लगी के गरीब बच्चों को पढ़ाता था । रोज रात को अपनी गली में दीपक जलाता । दुर्भाग्य से गांव में बाढ़ आ गई । गांव चैपट हो गया । मकान गिर गए । गांववासी बेघरवार हो गए । इस दुश्चक्र में चारों मित्रों की मृत्यु हो गई । चारों को यमराज के पास ले जाया गया । यमराज ने गरीब तथा अनपढ़ दोनों को स्वर्ग तथा धनिक एवं विद्वान को नरक ले जाने का आदेश दिया । यमराज का आदेश सुनकर धनिक ने कहा -‘‘महाराज ! मैं खूब दान-पुण्य करता था । मुझे नरक में क्यों भेज रहे हैं । मैंने तो सुना था कि दान-पुण्य करने वाले को स्वर्ग मिलता है ।‘‘ यमराज ने कहा - ‘‘देखो धनिक ! तुम दान-पुण्य तो करते थे किन्तु कालाबाजारी तथा बेईमानी भी करते थे । तुमने दान-पुण्य अपने गलत कामों को धोने के लिए किए थे । ईमानदारी से व्यापार करते हुए दान-पुण्य करता तो अवश्य काम आता । इसी तरह तुम्हारे दोस्त विद्वान ने भी प्रभु-प्राप्ति के लिए उपदेश जरूर दिए किन्तु बदले में भारी धनराशि भी ली । इस लिए तुम दोनों नरक के ही अधिकारी हो । किसान कम मित्र पढ़ा-लिखा जरूर था लेकिन उसने अनपढ़ों को पढ़ाया । अंधेरी गली में रोशनी की । मन्दिर में तो रोशनी पहले ही होती है । गरीब निर्धन होते हुए भी अपना काम ईमान से करता । इन दोनों के कार्य महान् हैं । इसलिए ये दोनों स्वर्ग के अधिकारी हैं ।‘‘ उन्होंने आगे कहा कि जो लोग दुखियों के दुख दूर करे, अंधों को को आंखें दे, पथभ्रष्ट लोगों को रास्ता दिखाए, वे ही स्वर्ग के अधिकारी हैं । वे लोग जो दिखावे के लिए कुछ करते हैं । अपने कुकर्मों को मिटाने के लिए पुण्य करते हैं । उन्हें तो नरक ही मिलेगा।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

कहानी - स्वाभिमान

एक समय की बात है । एक विद्वान किसी गांव में रहता था । वह पढ़ा-लिखा था, किन्तु गरीब था । धनवान लोगों के बारे में उसके विचार ठीक नहीं थे । उसका मानना था कि वे नासमझ, अहंकारी एवं व्यवहार के कठोर होते हैं । इसलिए वह विद्वान किसी भी धनिक के यहाँ नहीं जाता । केवल भिक्षा मांगता और अपने दिन काटता । उसकी पत्नी उसे कमाने के लिए रोज प्रताड़ित करती । एक दिन वह आजीविका हेतु प्रदेश चला गया । प्रदेश में संयोग से एक धनिक से भेंट हुई । विद्वान ने बहुत से श्लोक बनाए और धनिक की प्रशंसा में सुनाए । धनिक ने खुश होकर उसे अपने घर में रख लिया । विद्वान रोजाना सुबह-शाम, बोलते, लिखते तथा हर काम करते समय अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए धनिक की अंध प्रशंसा करता । विद्वान धनिक को सूर्य के समान प्रतापी, चन्द्रमा के समान कांतिवाला, वायु के समान पवित्र, अग्नि के समान शत्रुनाशक ओर भी न जाने किस-किस उपाधि से अलंकृत करता । विद्वान को प्रतिफल में कुछ नहीं मिला जबकि धनिक अपने यहाँ चरित्रहीन महिलाओ, नृतकियों तथा कलाबाजी दिखाने वाले लोगों का खूब स्वागत-सत्कार करता। एक समय आया कि विद्वान की हालत पतली हो गई। तब उसने विद्वान को क्रोध में आकर दो-तीन श्लोक सुनाए और अपने घर के लिए रवाना हो गया । घर आकर उसने अपनी पत्नी को सारी कहानी सुनाई । कई दिनांे बाद विद्वान जंगल से लकड़ी का बोझा अपने सिर पर रख कर ला रहा था । रास्ते में धनिक उसे मिला। उसने विद्वान को अभिवादन किया और लकड़ी ढोने का कारण पूछा । तब विद्वान ने कहा - हे धनिक । धनके लोभ में मैं तुम्हें ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, वायु आदि की उपाधि देता रहाा और तुम्हें दुनिया में सबसे सुन्दर, सर्वश्रेष्ठ, विद्वान कहता रहा । आज उसी झूठ का दण्ड भोग रहा हूँ । यह कहकर विद्वान चला गया

अपेक्षित शिक्षा प्रणाली

बालक का शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास कर उसको जीवन जीने के योग्य बनाना शिक्षा का मौलिक उद्देश्य होता है । बालक की रुचियों, मनोवृत्तियों तथा व्यवहार को परिष्कृत कर उसके व्यक्तित्व-निर्माण का साध्य है - शिक्षा। परीक्षा साध्य तक पहुँचने का साधन है । हम यह भी कह सकते हैं कि शिक्षा बालक के सर्वांगीण विकास का साधन और परीक्षा उसे पाने का माध्यम् है । आज का विद्यार्थी साध्य को भूलकर साधन को अधिक महत्त्व दे रहा है । केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर उपाधि प्राप्त करना ही उसका ध्येय रह गया है । आज प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन की ऊँचाइयों का छुने के लिए भौतिकवाद की दौड़ में शामिल हो गया है । उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए उपाधि रूपी शैक्षिक योग्यता हासिल करना उसका प्राथमिक उद्देश्य बन गया है । मूलतः परीक्षा उत्तीर्ण करना शिक्षा नहीं है । शिक्षा तो बालक का सर्वांगीण विकास करती है उसे विद्या प्रदान करती है । आज की शिक्षा विद्याविहीन शिक्षा है । वह केवल किताबी कीड़ों की फौज तैयार कर रही है । वस्तुतः आज की शिक्षा मैकाले की शिक्षा पद्धति पर आधारित है । मैकाले ने कहा था -‘‘इस शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षित भारतीय रंग-रूप में तो भारतीय होंगे परन्तु मन-मस्तिष्क, चिन्तन और रहन-सहन के स्तर पर अंग्रेजी संस्कृति के गुलाम होंगे ।‘‘ आज हम उसी शिक्षा प्रणाली का अनुसरण कर रहे हैं । दर असल मैकाले की शिक्षा को शिक्षा मानकर हमने अपनी जड़ों को काटने तथा संस्कृति को विलुप्त करने की भूल की । हमने ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, उद्योग आदि अनेकों क्षेत्रों में प्रगति की है किन्तु भीतर से खोखले होते जा रहे हैं । हमने परम्परागत शिक्षा-स्रोत जिनमें परिवार एवं समाज के संतुलित निर्माण व विकास करने की क्षमता थी, को दरकिनार किया । हम शिक्षा के मूल तत्त्वों से हटकर साक्षर बनाने वाली वर्तमान शिक्षा के पीछे भाग रहे हैं । इस दिशाहीन शिक्षा के कारण भूखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असमानता, साम्प्रदायिकता, अपराध, आतंकवाद न जाने क्या-क्या समस्याओं से हम धिर गए हैं । अधूरी तथा तात्कालिक लाभ देने वाली शिक्षा जीवन में नैराश्य और हताशा ही ला रही है। आज की शिक्षा शिक्षित बना रही है किन्तु चेतन एवं संवेदनशील कितने बन रहे हैं ? शिक्षा में समर्पण का भाव नहीं है । धन कमाना शिक्षितों की प्राथमिकता बन गई है । हम शिक्षा की चकाचैंध में इस कदर खो गए हैं कि पीछे मुड़कर देखना ही नहीं चाहते । वर्तमान शिक्षा का ही दुष्परिणाम है कि आज विसंगतियां, विषमताएं, विदु्रपताएं तथा विडम्बनाएं बढ़ी हैं । आज के शिक्षित भ्रमित है और उसमें कुण्ठाएं पनपी हैं । ऐसा व्यक्ति मानसिक रूप से कैसे स्वस्थ रह सकता है ? आज जरूरत है शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की । भूमण्डलीकरण के इस दौर में सर्वांगीण विकास की पूर्ति करने वाली मौलिक एवं मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता है ।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

कविता - पापा मुझे पढ़ाओ ना

सही बोलना - लिखना मम्मी-पापा, मुझे पढ़ाओ ना ।
छोटे-छोटे वाक्य बनाना फिर तुम मुझे बताओ ना ।
गोल-गोल मोती से सुन्दर, अक्षर मुझे सिखाओ ना ।
अंक बड़े मुक्ता जैसे कैसे मैं लिखूं बताओ ना ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना ।।
काम करूँ सब सुथरा-सुन्दर, इसका राज बताओ ना ।
काट-छाँट नहिं करूँ लेख में, इसका मार्ग दिखाओ ना ।
रहूँ सदा मैं प्रथम क्लास में, इसका मार्ग दिखाओ ना ।
सौ में सौ लाऊँ मैं नम्बर, इसका भेद बताओ ना ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना
नई-नई बात बताकर, मेरा ज्ञान बढ़ाओ ना ।
अच्छी-अच्छी सीखें देकर, मेरा शील बढ़ाओ ना ।
पापा प्यारे, मम्मी अच्छी, दोनों मुझे पढ़ाओ ना ।
मुझे बनाओ शिष्य लाडला, तुम शिक्षक बन जाओ ना ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना ।।
अगर पढ़ाओ तुम दोनों तो, मैं दुनियां में नाम करूँ ।
बन कर ज्ञानी, गुणी, शीलसम्पन्न प्रगतिपथ पर पैर घरूँ ।
मेरे नगर- गांव की बढ़-चढ़ सब विधि सेवा सदा करूँ ।
दीन-दुखी हर विश्व मनुज के जीवन की मैं पीर हरूँ ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना ।।

रविवार, 29 नवंबर 2009

शैक्षणिक खेल

बालकों को दो समूहों में बाँट दें । उन्हें आमने-सामने खड़ा करदें । एक समूह के प्रत्येक बालक को क्रमिक संख्या आवंटित करदें । दूसरे समूह के प्रत्येक बालक को प्रथम समूह के अनुरूप ही संख्या आवन्टित करदें । फिर आवंटित संख्या मेंसे कोई एक संख्या बोलकर पहले समूह के उस संख्या वाले बालक को कोई शब्द अथवा किसी वस्तु का नाम बोलने को कहें । उस बालक ने शब्द अथवा वस्तु का नाम बोला है, उसी से मिलता जुलता शब्द अथवा वस्तु का नाम दूसरे समूह का उसी क्रमांक वाला बालक बोलेगा । सही का निर्णय शेष बालक करेंगे ।
उदाहरण - एक समूह के पांचवें क्रमांक वाले बालक द्वारा ‘कागज‘ शब्द बोलने पर दूसरे समूह के उसी क्रमांक वाला बालक ‘पैंसिल‘ शब्द बोलेगा ।
विलोम शब्द, लिंग, वचन, पर्यायवाची शब्द आदि के अभ्सास हेतु इस खेल को खेला जा सकता है ।

शनिवार, 28 नवंबर 2009

शोध निबन्ध (लघु शोघ प्रबन्ध)

विद्यार्थियों में अनुसंधान करने की योग्यता एवं क्षमता की परख हेतु स्नातकोत्तर परीक्षाओं में एक प्रश्न-पत्र शोध से सम्बन्धित होता है । इस प्रश्न-पत्र में विषय के किसी एक महत्त्वपूर्णक्षेत्रकेविशद् ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है । यह प्रश्न-पत्र निबन्ध के रूप में होता है । निबन्ध दो तरह के होते हैं - 1. वर्णनात्मक निबन्ध तथा 2. विश्लेषणात्मक एवं विवेचनात्मक निबन्ध । भाषा विषयों में वर्णनात्मक निबन्ध को साहित्यिक निबन्ध कहा जाता है । दूसरा निबन्ध पूर्णतया शोधाधारित होता है । वर्णनात्मक अथवा साहित्यिक निबन्ध परीक्षा कक्ष में बैठकर लिखा जाता है, इसके लिए ढ़ाई से तीन घण्टे का समय निर्धारित होता है किन्तु विषय पूर्व सूचित नहीं होता है । परीक्षार्थी को अपने ग्राह्य ज्ञान एवं स्मृति के आधार पर निबन्ध लिखा जाता है । शोधाधारित निबन्ध का विषय परीक्षार्थी द्वारा ही चुना जाता है । इसे लिखने के लिए सात-आठ माह का समय मिलता है । इस निबन्ध को लघु शोध प्रबन्ध कहा जाता है । यह पुस्तकाकार होता है । लघु शोध प्रबन्ध का विषय परीक्षार्थी अपने शिक्षक की मदद से तय करता है । यह परीक्षार्थी की रुचि एवं क्षमता तथा उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करता है ।
परीक्षार्थी का पर्याप्त एवं समुचित समंक सामग्री-संकलन के बाद ही बड़े मनोयोग से शोध निबन्ध लिखना चाहिए । लघु शोध प्रबन्ध का विषय एवं आकार छोटा अवश्य होता है, किन्तु वह शोध प्रबन्ध ही होता है । अतः उसमें शोध प्रबन्ध के समस्त गुण विद्यमान होने चाहिए। शोध निबन्ध लिखते समय निम्न बातों का ध्यान रखने पर शोध प्रबन्ध न केवल वैज्ञानिक होगा अपितु शोध प्रबन्ध की समस्त अपेक्षाएं पूरी होने के कारण अधिकाधिक अंक प्राप्त करने में भी वह सहायक रहेगा ।
1. समुचित अध्यन एवं चिन्तन-मनन के पश्चात् अपने निदेशन-शिक्षक के मार्गदर्शन में अपने लघु शोध प्रबन्ध की रूपरेखा बनाएं,
2. विषय का प्रतिपादन भूमिका एवं शोध दो भागों में करें ।
3. भूमिका वाले भाग में विषय के स्वरूप का सैद्धान्तिक विवेचन, सम्बन्धित शोध साहित्य का अवलोकन,अध्याय-जना तथा शोध संघटकों की व्याख्या करें,
4. प्रस्तावना में विषय का महत्त्व, विषय चयन के कारण, पूर्व में हुए शोध अध्ययनों की चर्चा तथा उनमें रहीं त्रुटियां, शोधाधीन अध्ययन में उन त्रुटियों की पूर्ति आदि का उल्लेख करें ।
5. शोध वाले भाग में विषय का गवेष्णात्मक अध्ययन होता है । विषय के विभिन्न अंगों का विवेचन और अध्यायों का क्रम तर्कसंगत हो, ताकि पूर्वापार क्रम का निर्ववहन हो सके,
6. अन्तिम अध्याय ‘उपससंहार‘ में सम्पूर्ण अध्ययन का समाहार,निष्कर्ष एवं सुझाव आदि संग्रथित करें,
7. परिशिष्ट में सामान्यतः ग्रन्थ सूची होती है जिसमें आधार(उपजीव्य)ग्रन्थ, सहायक ग्रन्थ, संदर्भ कोश तथा पत्र-पत्रिकाएं र्शीषक से सूचियां संकलित होती हैं । इन सचियों में ग्रन्थकार का नाम, ग्रन्थ का नाम, ग्रन्थ-प्रकाशक का नाम,प्रकाशन वर्ष, संस्करण, मूल्य आदि का उल्लेख किया जाता है ।
8. निबन्ध लिखते समय दृष्टांत, उदहारण, सिद्धान्त, वाक्य-प्रसंग आदि को यथास्थान उद्धृत करना चाहिए । उद्धरण की प्रामाणिकता के लिए संदर्भों में लेखक तथा पुस्तक का नाम, पुस्तक प्रकाशन वर्ष, पृष्ठ संख्या का स्पष्ट अंकन पाद टिप्पणी में अवश्य किया जाना चाहिए । संदर्भ प्रत्येक पृष्ठ पर सबसे नीचे टिप्पणी के रूप में अथवा अध्याय की समाप्ति पर अन्त में सामूहिक सूची के रूप में प्रदर्शित किए जा सकते हैं ।
9. समंक-संकलन एवं कलात्मक रूप से उनके प्रदर्शन की अपेक्षा अंशों की प्रामाणिकता तथा संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
10. शोध भाग की अपेक्षा भूमिका वाला भाग छोटा होता है । अतः इन दोनों के आकार के अनुरूप ही निबन्ध की सामग्री का समावेश होना चाहिए । सम्पूर्ण सामग्री विवेचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक होनी चाहिए ।
11. निबन्ध के मुख पृष्ठ पर सबसे ऊपर बीच में अनुसंधेय विषय का शीर्ष लिखें । इसी पृष्ठ पर निदेशक, शोधार्थी, परीक्षा एवं विश्वविद्यालय का नाम तथा परीक्षा का वर्ष आदि का उल्लेख यथास्थान करना चाहिए ।

पाठ्यक्रम और मातृभाषा

पाठ्यक्रम शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण संघटक तथा रोचक विषय है । कल तक ‘पाठ्यक्रम‘ शब्द संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता था किन्तु आज शाला की सम्पूर्ण गतिविधियाँ एवं अनुभव इसमें समाहित हैं । एक शिक्षार्थी अध्ययन के साथ-साथ कक्षा-कक्ष के भीतर-बाहर जो अनुभव करता है, वह पाठ्यक्रम है । हर विषय का अपना महत्त्व है । इसमें न कोई छौटा है न कोई बड़ा । देश काल की आवश्यकता एवं परिस्थिति के दृष्टिगत ज्ञान-विज्ञान के के अध्ययन को प्राथमिकता अवश्य प्रदान की जाती है । कुछ विषय अनिवार्य तो कुछ विषय ऐच्छिक हो सकते हैं, किन्तु इन सभी विषयों के अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् तो भाषा ही होती है ।
सृष्टि-निर्माता विधाता की तरह मनुष्य भी अपनी सृष्टि का निर्माण स्वयं करता है । वह अपनी बुद्धि, वाणी ओर चेतना के आधार पर प्रतिकृलता पर विजय पाकर नव-निर्माण करता है । इस नवीनतारूपी अनुकूलता से सम्बन्धित विचार-विनिमय का आधार भाषा ही हैै । आकांक्षा, वृत्ति, मनोभाव के प्रदर्शन को भाषा ही मूर्त रूप देती है । यद्यपि संकेत और भाव-मुद्रा का भी स्थान है किन्तु इनका क्षेत्र संकुचित होने के कारण निश्चित, त्वरित एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति भाषा के द्वारा ही की जा सकती है ।
हर भाषा का अपना स्थान होता है, लेकिन मातृभाषा के महत्त्व को कम नहीं आंका जाना चाहिए। भाषा जो सर्वप्रथम शिशु अपनी मां से सीखता है और घर-परिवार तथा समाज में अपने विचारों का परस्पर विचार-विनिमय करता है, वही तो है - मातृभाषा ।
मातृभाषा के बिना सर्वतोन्तुखी विकास सम्भव नहीं हो सकता । उसका बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक विकास उसकी भाषा-क्षमता पर ही निर्भर करता है । उसके संवेगों, स्थायी भावों आदि का मातृभाषा से घनिष्ट सम्बन्ध है। बाल-मनोविज्ञान का प्रमुख आधार मातृभषा ही होती है । बच्चे के व्यक्तित्व का आधार भी मातृभाषा ही होती है । मातृभाषा सीखने में आसान होती है । बोलचाल एवं निरन्तर उपयोग के कारण पठन-पाठन के बिना भी मातभाषा बोली जा सकती है ।
बच्चा जिस भाषा में बोलता है, सोचता है और सपने देखता है, वही भाषा अगर शाला में पढ़ने को मिले न केवल विचारों की शुद्धता एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति होगी अपितु विचारों में सच्चाई, मस्तिष्क का विकास, ज्ञान का विस्तार, बच्चे की कार्यकुशलता एवं क्रियाशीलता भी दिखाई देगी ।
अगर हम चाहते हैं कि बच्चे की सोच शुद्ध, सुबोध एवं श्रेष्ठ हो, ज्ञान गहन एवं नवीन हो, अभिव्यक्ति स्वाभाविक हो, व्यवहार संस्कृतिजन्य हो, रचना-शक्ति का विकास हो तो मातृ भाषा को अपनाना ही होगा ।
बालक मातृभाषा के सम्पर्क में रहता है, वह उसे बोलना जानता है । अतः शाला में प्रवेश के बाद से पूर्व-प्राथमिक एवं प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम् मातृभाषा ही होना चाहिए । मनोविज्ञान का सिद्धान्त ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर‘ भी तो यही बताता है ।
मातृभाषा से अध्ययन-अध्यापन की बात तो भारत के सभी शिक्षा आयोग, शिक्षा समितियाँ एवं बहुसंख्यक शिक्षाशास्त्री स्वीकार कर ही चुके हैं । इस प्रकार प्राथमिक स्तर तक तो शिक्षा एवं परीक्षा का माध्यम् मातृभाषा ही होना चाहिए।
जहाँ तक भारत में मातृभाषा का प्रश्न है, भारत एक बहुभाषी देशी है । इसमें अनेक भाषाएँ बोलियाँ एवं उप बोलियां प्रचलित है । हिन्दी हमारे देश की मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा है किन्तु प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाएं हैं जो रोजमर्रा में उपयोग में आती हैं । प्रादेशिक भाषा एवं स्थानीय बोली ही घर में बोली जाती है , शिशु जन्म से बड़ा होने तक उसी भाषा के सम्पर्क में रहता है । इस प्रकार वही भाषा उसकी मातृभाषा होती है । अतः पूर्व प्राथमिक एवं प्राथमिक शिक्षा स्तर पर शिक्षण का माध्यम् होनी चाहिए । हिन्दी राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए । अंग्रेजी तीसरी भाषा हो सकती है । चूंकि पूर्व माध्यमिक कक्षाओं में शिक्षार्थी को प्रादेशिक भाषा की जानकारी हो जाती है । अतः माध्यमिक कक्षाओं में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् हिन्दी तथा द्वितीय भाषा संस्कृत होनी चाहिए । सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का शिक्षण भी आवश्यक है किन्तु पूर्व प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक मातृभाषा एवं प्रादेशिक भाषा का अध्ययन नितान्त आवश्यक है । राजस्थान में राजस्थानी मातृभाषा है । इसका वृहद् शब्दकोश तथा पृथक व्याकरण है । अतः प्राथमिक कक्षाओं में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् राजस्थानी को स्वीकार कर पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ।