शनिवार, 28 नवंबर 2009

पाठ्यक्रम और मातृभाषा

पाठ्यक्रम शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण संघटक तथा रोचक विषय है । कल तक ‘पाठ्यक्रम‘ शब्द संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता था किन्तु आज शाला की सम्पूर्ण गतिविधियाँ एवं अनुभव इसमें समाहित हैं । एक शिक्षार्थी अध्ययन के साथ-साथ कक्षा-कक्ष के भीतर-बाहर जो अनुभव करता है, वह पाठ्यक्रम है । हर विषय का अपना महत्त्व है । इसमें न कोई छौटा है न कोई बड़ा । देश काल की आवश्यकता एवं परिस्थिति के दृष्टिगत ज्ञान-विज्ञान के के अध्ययन को प्राथमिकता अवश्य प्रदान की जाती है । कुछ विषय अनिवार्य तो कुछ विषय ऐच्छिक हो सकते हैं, किन्तु इन सभी विषयों के अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् तो भाषा ही होती है ।
सृष्टि-निर्माता विधाता की तरह मनुष्य भी अपनी सृष्टि का निर्माण स्वयं करता है । वह अपनी बुद्धि, वाणी ओर चेतना के आधार पर प्रतिकृलता पर विजय पाकर नव-निर्माण करता है । इस नवीनतारूपी अनुकूलता से सम्बन्धित विचार-विनिमय का आधार भाषा ही हैै । आकांक्षा, वृत्ति, मनोभाव के प्रदर्शन को भाषा ही मूर्त रूप देती है । यद्यपि संकेत और भाव-मुद्रा का भी स्थान है किन्तु इनका क्षेत्र संकुचित होने के कारण निश्चित, त्वरित एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति भाषा के द्वारा ही की जा सकती है ।
हर भाषा का अपना स्थान होता है, लेकिन मातृभाषा के महत्त्व को कम नहीं आंका जाना चाहिए। भाषा जो सर्वप्रथम शिशु अपनी मां से सीखता है और घर-परिवार तथा समाज में अपने विचारों का परस्पर विचार-विनिमय करता है, वही तो है - मातृभाषा ।
मातृभाषा के बिना सर्वतोन्तुखी विकास सम्भव नहीं हो सकता । उसका बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक विकास उसकी भाषा-क्षमता पर ही निर्भर करता है । उसके संवेगों, स्थायी भावों आदि का मातृभाषा से घनिष्ट सम्बन्ध है। बाल-मनोविज्ञान का प्रमुख आधार मातृभषा ही होती है । बच्चे के व्यक्तित्व का आधार भी मातृभाषा ही होती है । मातृभाषा सीखने में आसान होती है । बोलचाल एवं निरन्तर उपयोग के कारण पठन-पाठन के बिना भी मातभाषा बोली जा सकती है ।
बच्चा जिस भाषा में बोलता है, सोचता है और सपने देखता है, वही भाषा अगर शाला में पढ़ने को मिले न केवल विचारों की शुद्धता एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति होगी अपितु विचारों में सच्चाई, मस्तिष्क का विकास, ज्ञान का विस्तार, बच्चे की कार्यकुशलता एवं क्रियाशीलता भी दिखाई देगी ।
अगर हम चाहते हैं कि बच्चे की सोच शुद्ध, सुबोध एवं श्रेष्ठ हो, ज्ञान गहन एवं नवीन हो, अभिव्यक्ति स्वाभाविक हो, व्यवहार संस्कृतिजन्य हो, रचना-शक्ति का विकास हो तो मातृ भाषा को अपनाना ही होगा ।
बालक मातृभाषा के सम्पर्क में रहता है, वह उसे बोलना जानता है । अतः शाला में प्रवेश के बाद से पूर्व-प्राथमिक एवं प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम् मातृभाषा ही होना चाहिए । मनोविज्ञान का सिद्धान्त ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर‘ भी तो यही बताता है ।
मातृभाषा से अध्ययन-अध्यापन की बात तो भारत के सभी शिक्षा आयोग, शिक्षा समितियाँ एवं बहुसंख्यक शिक्षाशास्त्री स्वीकार कर ही चुके हैं । इस प्रकार प्राथमिक स्तर तक तो शिक्षा एवं परीक्षा का माध्यम् मातृभाषा ही होना चाहिए।
जहाँ तक भारत में मातृभाषा का प्रश्न है, भारत एक बहुभाषी देशी है । इसमें अनेक भाषाएँ बोलियाँ एवं उप बोलियां प्रचलित है । हिन्दी हमारे देश की मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा है किन्तु प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाएं हैं जो रोजमर्रा में उपयोग में आती हैं । प्रादेशिक भाषा एवं स्थानीय बोली ही घर में बोली जाती है , शिशु जन्म से बड़ा होने तक उसी भाषा के सम्पर्क में रहता है । इस प्रकार वही भाषा उसकी मातृभाषा होती है । अतः पूर्व प्राथमिक एवं प्राथमिक शिक्षा स्तर पर शिक्षण का माध्यम् होनी चाहिए । हिन्दी राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए । अंग्रेजी तीसरी भाषा हो सकती है । चूंकि पूर्व माध्यमिक कक्षाओं में शिक्षार्थी को प्रादेशिक भाषा की जानकारी हो जाती है । अतः माध्यमिक कक्षाओं में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् हिन्दी तथा द्वितीय भाषा संस्कृत होनी चाहिए । सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का शिक्षण भी आवश्यक है किन्तु पूर्व प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक मातृभाषा एवं प्रादेशिक भाषा का अध्ययन नितान्त आवश्यक है । राजस्थान में राजस्थानी मातृभाषा है । इसका वृहद् शब्दकोश तथा पृथक व्याकरण है । अतः प्राथमिक कक्षाओं में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् राजस्थानी को स्वीकार कर पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कृपया सटीक एवं उपयोगी टिप्पणी प्रेषित करें