शनिवार, 28 नवंबर 2009

शोध निबन्ध (लघु शोघ प्रबन्ध)

विद्यार्थियों में अनुसंधान करने की योग्यता एवं क्षमता की परख हेतु स्नातकोत्तर परीक्षाओं में एक प्रश्न-पत्र शोध से सम्बन्धित होता है । इस प्रश्न-पत्र में विषय के किसी एक महत्त्वपूर्णक्षेत्रकेविशद् ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है । यह प्रश्न-पत्र निबन्ध के रूप में होता है । निबन्ध दो तरह के होते हैं - 1. वर्णनात्मक निबन्ध तथा 2. विश्लेषणात्मक एवं विवेचनात्मक निबन्ध । भाषा विषयों में वर्णनात्मक निबन्ध को साहित्यिक निबन्ध कहा जाता है । दूसरा निबन्ध पूर्णतया शोधाधारित होता है । वर्णनात्मक अथवा साहित्यिक निबन्ध परीक्षा कक्ष में बैठकर लिखा जाता है, इसके लिए ढ़ाई से तीन घण्टे का समय निर्धारित होता है किन्तु विषय पूर्व सूचित नहीं होता है । परीक्षार्थी को अपने ग्राह्य ज्ञान एवं स्मृति के आधार पर निबन्ध लिखा जाता है । शोधाधारित निबन्ध का विषय परीक्षार्थी द्वारा ही चुना जाता है । इसे लिखने के लिए सात-आठ माह का समय मिलता है । इस निबन्ध को लघु शोध प्रबन्ध कहा जाता है । यह पुस्तकाकार होता है । लघु शोध प्रबन्ध का विषय परीक्षार्थी अपने शिक्षक की मदद से तय करता है । यह परीक्षार्थी की रुचि एवं क्षमता तथा उपलब्ध संसाधनों पर निर्भर करता है ।
परीक्षार्थी का पर्याप्त एवं समुचित समंक सामग्री-संकलन के बाद ही बड़े मनोयोग से शोध निबन्ध लिखना चाहिए । लघु शोध प्रबन्ध का विषय एवं आकार छोटा अवश्य होता है, किन्तु वह शोध प्रबन्ध ही होता है । अतः उसमें शोध प्रबन्ध के समस्त गुण विद्यमान होने चाहिए। शोध निबन्ध लिखते समय निम्न बातों का ध्यान रखने पर शोध प्रबन्ध न केवल वैज्ञानिक होगा अपितु शोध प्रबन्ध की समस्त अपेक्षाएं पूरी होने के कारण अधिकाधिक अंक प्राप्त करने में भी वह सहायक रहेगा ।
1. समुचित अध्यन एवं चिन्तन-मनन के पश्चात् अपने निदेशन-शिक्षक के मार्गदर्शन में अपने लघु शोध प्रबन्ध की रूपरेखा बनाएं,
2. विषय का प्रतिपादन भूमिका एवं शोध दो भागों में करें ।
3. भूमिका वाले भाग में विषय के स्वरूप का सैद्धान्तिक विवेचन, सम्बन्धित शोध साहित्य का अवलोकन,अध्याय-जना तथा शोध संघटकों की व्याख्या करें,
4. प्रस्तावना में विषय का महत्त्व, विषय चयन के कारण, पूर्व में हुए शोध अध्ययनों की चर्चा तथा उनमें रहीं त्रुटियां, शोधाधीन अध्ययन में उन त्रुटियों की पूर्ति आदि का उल्लेख करें ।
5. शोध वाले भाग में विषय का गवेष्णात्मक अध्ययन होता है । विषय के विभिन्न अंगों का विवेचन और अध्यायों का क्रम तर्कसंगत हो, ताकि पूर्वापार क्रम का निर्ववहन हो सके,
6. अन्तिम अध्याय ‘उपससंहार‘ में सम्पूर्ण अध्ययन का समाहार,निष्कर्ष एवं सुझाव आदि संग्रथित करें,
7. परिशिष्ट में सामान्यतः ग्रन्थ सूची होती है जिसमें आधार(उपजीव्य)ग्रन्थ, सहायक ग्रन्थ, संदर्भ कोश तथा पत्र-पत्रिकाएं र्शीषक से सूचियां संकलित होती हैं । इन सचियों में ग्रन्थकार का नाम, ग्रन्थ का नाम, ग्रन्थ-प्रकाशक का नाम,प्रकाशन वर्ष, संस्करण, मूल्य आदि का उल्लेख किया जाता है ।
8. निबन्ध लिखते समय दृष्टांत, उदहारण, सिद्धान्त, वाक्य-प्रसंग आदि को यथास्थान उद्धृत करना चाहिए । उद्धरण की प्रामाणिकता के लिए संदर्भों में लेखक तथा पुस्तक का नाम, पुस्तक प्रकाशन वर्ष, पृष्ठ संख्या का स्पष्ट अंकन पाद टिप्पणी में अवश्य किया जाना चाहिए । संदर्भ प्रत्येक पृष्ठ पर सबसे नीचे टिप्पणी के रूप में अथवा अध्याय की समाप्ति पर अन्त में सामूहिक सूची के रूप में प्रदर्शित किए जा सकते हैं ।
9. समंक-संकलन एवं कलात्मक रूप से उनके प्रदर्शन की अपेक्षा अंशों की प्रामाणिकता तथा संगति पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।
10. शोध भाग की अपेक्षा भूमिका वाला भाग छोटा होता है । अतः इन दोनों के आकार के अनुरूप ही निबन्ध की सामग्री का समावेश होना चाहिए । सम्पूर्ण सामग्री विवेचनात्मक एवं विश्लेषणात्मक होनी चाहिए ।
11. निबन्ध के मुख पृष्ठ पर सबसे ऊपर बीच में अनुसंधेय विषय का शीर्ष लिखें । इसी पृष्ठ पर निदेशक, शोधार्थी, परीक्षा एवं विश्वविद्यालय का नाम तथा परीक्षा का वर्ष आदि का उल्लेख यथास्थान करना चाहिए ।

पाठ्यक्रम और मातृभाषा

पाठ्यक्रम शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण संघटक तथा रोचक विषय है । कल तक ‘पाठ्यक्रम‘ शब्द संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होता था किन्तु आज शाला की सम्पूर्ण गतिविधियाँ एवं अनुभव इसमें समाहित हैं । एक शिक्षार्थी अध्ययन के साथ-साथ कक्षा-कक्ष के भीतर-बाहर जो अनुभव करता है, वह पाठ्यक्रम है । हर विषय का अपना महत्त्व है । इसमें न कोई छौटा है न कोई बड़ा । देश काल की आवश्यकता एवं परिस्थिति के दृष्टिगत ज्ञान-विज्ञान के के अध्ययन को प्राथमिकता अवश्य प्रदान की जाती है । कुछ विषय अनिवार्य तो कुछ विषय ऐच्छिक हो सकते हैं, किन्तु इन सभी विषयों के अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् तो भाषा ही होती है ।
सृष्टि-निर्माता विधाता की तरह मनुष्य भी अपनी सृष्टि का निर्माण स्वयं करता है । वह अपनी बुद्धि, वाणी ओर चेतना के आधार पर प्रतिकृलता पर विजय पाकर नव-निर्माण करता है । इस नवीनतारूपी अनुकूलता से सम्बन्धित विचार-विनिमय का आधार भाषा ही हैै । आकांक्षा, वृत्ति, मनोभाव के प्रदर्शन को भाषा ही मूर्त रूप देती है । यद्यपि संकेत और भाव-मुद्रा का भी स्थान है किन्तु इनका क्षेत्र संकुचित होने के कारण निश्चित, त्वरित एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति भाषा के द्वारा ही की जा सकती है ।
हर भाषा का अपना स्थान होता है, लेकिन मातृभाषा के महत्त्व को कम नहीं आंका जाना चाहिए। भाषा जो सर्वप्रथम शिशु अपनी मां से सीखता है और घर-परिवार तथा समाज में अपने विचारों का परस्पर विचार-विनिमय करता है, वही तो है - मातृभाषा ।
मातृभाषा के बिना सर्वतोन्तुखी विकास सम्भव नहीं हो सकता । उसका बौद्धिक, नैतिक एवं सांस्कृतिक विकास उसकी भाषा-क्षमता पर ही निर्भर करता है । उसके संवेगों, स्थायी भावों आदि का मातृभाषा से घनिष्ट सम्बन्ध है। बाल-मनोविज्ञान का प्रमुख आधार मातृभषा ही होती है । बच्चे के व्यक्तित्व का आधार भी मातृभाषा ही होती है । मातृभाषा सीखने में आसान होती है । बोलचाल एवं निरन्तर उपयोग के कारण पठन-पाठन के बिना भी मातभाषा बोली जा सकती है ।
बच्चा जिस भाषा में बोलता है, सोचता है और सपने देखता है, वही भाषा अगर शाला में पढ़ने को मिले न केवल विचारों की शुद्धता एवं स्पष्ट अभिव्यक्ति होगी अपितु विचारों में सच्चाई, मस्तिष्क का विकास, ज्ञान का विस्तार, बच्चे की कार्यकुशलता एवं क्रियाशीलता भी दिखाई देगी ।
अगर हम चाहते हैं कि बच्चे की सोच शुद्ध, सुबोध एवं श्रेष्ठ हो, ज्ञान गहन एवं नवीन हो, अभिव्यक्ति स्वाभाविक हो, व्यवहार संस्कृतिजन्य हो, रचना-शक्ति का विकास हो तो मातृ भाषा को अपनाना ही होगा ।
बालक मातृभाषा के सम्पर्क में रहता है, वह उसे बोलना जानता है । अतः शाला में प्रवेश के बाद से पूर्व-प्राथमिक एवं प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा का माध्यम् मातृभाषा ही होना चाहिए । मनोविज्ञान का सिद्धान्त ‘ज्ञात से अज्ञात की ओर‘ भी तो यही बताता है ।
मातृभाषा से अध्ययन-अध्यापन की बात तो भारत के सभी शिक्षा आयोग, शिक्षा समितियाँ एवं बहुसंख्यक शिक्षाशास्त्री स्वीकार कर ही चुके हैं । इस प्रकार प्राथमिक स्तर तक तो शिक्षा एवं परीक्षा का माध्यम् मातृभाषा ही होना चाहिए।
जहाँ तक भारत में मातृभाषा का प्रश्न है, भारत एक बहुभाषी देशी है । इसमें अनेक भाषाएँ बोलियाँ एवं उप बोलियां प्रचलित है । हिन्दी हमारे देश की मातृभाषा एवं राष्ट्रभाषा है किन्तु प्रदेशों में प्रादेशिक भाषाएं हैं जो रोजमर्रा में उपयोग में आती हैं । प्रादेशिक भाषा एवं स्थानीय बोली ही घर में बोली जाती है , शिशु जन्म से बड़ा होने तक उसी भाषा के सम्पर्क में रहता है । इस प्रकार वही भाषा उसकी मातृभाषा होती है । अतः पूर्व प्राथमिक एवं प्राथमिक शिक्षा स्तर पर शिक्षण का माध्यम् होनी चाहिए । हिन्दी राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए । अंग्रेजी तीसरी भाषा हो सकती है । चूंकि पूर्व माध्यमिक कक्षाओं में शिक्षार्थी को प्रादेशिक भाषा की जानकारी हो जाती है । अतः माध्यमिक कक्षाओं में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् हिन्दी तथा द्वितीय भाषा संस्कृत होनी चाहिए । सम्पर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का शिक्षण भी आवश्यक है किन्तु पूर्व प्राथमिक से उच्च शिक्षा तक मातृभाषा एवं प्रादेशिक भाषा का अध्ययन नितान्त आवश्यक है । राजस्थान में राजस्थानी मातृभाषा है । इसका वृहद् शब्दकोश तथा पृथक व्याकरण है । अतः प्राथमिक कक्षाओं में अध्ययन-अध्यापन का माध्यम् राजस्थानी को स्वीकार कर पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए ।