शुक्रवार, 4 दिसंबर 2009

तीर्थ बड़ा कि सेवा

एक समय की बात है । एक प्रचलित कथा है । एक महात्मा ने तीर्थ यात्रा करने की सोची और चल पड़े । रास्ते में वे एक मन्दिर में रूके । रात हो गई । वे उसी मन्दिर में सो गए । नींद में स्वप्न में उन्हें एक आवाज सुनी । कोई कह रहा था- ‘तीर्थ का फल तो घर बैठे ही मिल सकता है बशर्ते कि मनुष्य सात्विक तथा निर्लोभी हो जैसा कि केरल का एक ग्रामीण रामू है । वह जूते गाँठ कर अपना तथा अपना परिवार चलाता है । तीर्थ यात्रा पर नहीं गया फिर भी उसे तीर्थ यात्रा का लाभ मिल गया । महात्मा ने तीर्थ यात्रा का विचार स्थगित कर रामू से मिलने की सोची । महात्मा ने घूमते-घूमते रामू को खोज लिया । उसेने रामू से तीर्थ यात्रा पर जाने की चर्चा की । रामू ने प्रणाम किया और कहा -‘‘ महात्माजी, आप मेरे घर पधारे । मुझे तो तीर्थ यात्रा का फल इससे ही मिल गया । उसने आगे कहा कि उसने भी तीर्थ करने की सोची थी । अपना तथा पत्नी का पेट काट कर पैसे जोड़े ताकि तीर्थ यात्रा पर जा सकूं , किन्तु उस समय मेरी धर्मपत्नी के बच्चा होने वाला था। पड़ौसी के घर में मैथी की सब्जी बनी थी । मेरी पत्नी को उस सब्जी की सुगन्ध आई और उसने मुझे सब्जी लाने को कहा । मैं पड़ौसी के घर गया और थोड़ी सब्जी देने का निवेदन किया । पड़ौसी ने सब्जी को अपवित्र बताते हुए कहा कि लेना चाहो तो ले लो। उसने यह भी कहा कि बच्चे भूखे थे । इसलिए श्मसान से मैथी के पत्ते तौड़ कर सब्जी बनाई है इसलिए अपवित्र है ।‘‘ रामू ने कहा कि पड़ौसी की इतनी दयनीय हालत देखकर इकट्ठे किए हुए रुपए उसे दे दिए । पडौसी को सुख मिला इसलिए तीर्थ का फल तो घर बैठे ही मिल गया ।
महात्माजी रामू को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले गए । आगे जाकर उनी भंेट तुलाधर नामक एक विद्वान से हुई । महात्माजी ने उससे भी तीर्थ के बारे में चर्चा की । तुलाधर ने कहा कि उसके गांव में न जाने कितने भूखे हैं, कितने गरीब और बीमार हैं। अगर मेरे पास पैसा है तो मैं पहले उनके दुख-दर्द को दूर करने में खर्च करना ज्यादा ठीक मानता हूँ क्योंकि मानव सेवा से बढ़कर दूसरा कोई तीर्थ नहीं है ।मेरी तो तीर्थ यात्रा दीन-दुखियों की सेवा करना है ।
महात्माजी उसके विचारों से बड़े खुश हुए । उन्होंने तुलाधर को अपना गुरु माना और मानव-सेवा में जुट गए ।

गुरुवार, 3 दिसंबर 2009

समै रो सांच

एक अधेड़ उमर रो हटो-कटो आदमी हो । उणनै आपरै सरीर पर घणो घमण्ड हो । उण रे गांव मांय ही एक मंगतो रेवतों । बो मांग‘र खुदरो पेट भरतो । एक दिन एक मोटर भीड़नै गिरग्यो । उण री आंख फूटगी अर आंधों होग्यो पण बो मांगणों नीं छोड़्यो। होळै-होळै बो बुढ़ापै रै साथै-साथै बीमार भी रेवणै लागग्यो । उण रो सरीर जबाब देवणै लागग्यो । एक-एक हाडी-पांसळी दिखणै लागगी । भीख मांगणी अब भी नीं छोड़ी । लोग-बाग उणनै देखता । बो अधेड़ भी देखतो । एक दिन अधेड़ रे मन मांय दया आई अर बो मंगतै रे कनै जाय‘र बोल्यो - अरे बाबा ! तेरी हालत घणी खराब है । तेरो ओ जीणो जीणो थोड़े ही है । फेर भी तूं मांगतो रेवै । भगवान भी इतो निर्दयी है कै तनै मौत नीं देवै । तनैं तो भगवान सूं अरदास करनी चाहिजै को बो तनै बुला लेवै । अधेड़ री बात सुण‘र मंगतो बोल्यो - बेटा ! म्हे भी थारी आ ही सोचूं अर रोज भगवान नै हाथ जोड़‘र कैवूं कै भगवान म्हनै इण धरती सूं उठा ले पण भगवान मेरी बात सूणै नीं । सायद बो म्हनै देखण वाळा नै आ महसूस कराणै चावै कै एक दिन उणरी भी हालत इसी होय सकै । अधेड़ नै हियै च्यानणो होग्यो कै बैर भाव अर घमण्ड नै भूल ‘र जीवणै मांय ही सार है । समै एक जिस्यो नीं रवै ।

बुधवार, 2 दिसंबर 2009

कहानी - स्वर्ग का मार्ग

चार दोस्त थे । एक गांव में रहते थे । उनमें एक धनी, एक गरीब, एक विद्वान तथा एक किसान था । वह अधिक पढ़ा-लिखा नहीं था । धनी व्यापार करता था, व्यापार के दौर न वह ग्राहकों से धोखाधड़ी करता, बाजार में काला बाजारी करता । अपने इन पापों को धोने के लिए वह खूब दान-पुण्य करता । गरीब मेहनत-मजदूरी कर अपना तथा अपने परिवार का पेट पालता । वह ईमानदारी से काम करता । लोगों की जरूरत में उनकी मदद करता । विद्वान उपदेश देता । भगवान को प्राप्त करने मार्ग बताता । रोजाना मन्दिर जाता । वहाँ सुबह-शाम दीपक जलाता । उपदेश देने के बदले वह लोगों से मोटी रकम लेता । किसान खेती से अपनी आजीविका चलाता । जब खेती का कार्य नहीं होता तब अपनी लगी के गरीब बच्चों को पढ़ाता था । रोज रात को अपनी गली में दीपक जलाता । दुर्भाग्य से गांव में बाढ़ आ गई । गांव चैपट हो गया । मकान गिर गए । गांववासी बेघरवार हो गए । इस दुश्चक्र में चारों मित्रों की मृत्यु हो गई । चारों को यमराज के पास ले जाया गया । यमराज ने गरीब तथा अनपढ़ दोनों को स्वर्ग तथा धनिक एवं विद्वान को नरक ले जाने का आदेश दिया । यमराज का आदेश सुनकर धनिक ने कहा -‘‘महाराज ! मैं खूब दान-पुण्य करता था । मुझे नरक में क्यों भेज रहे हैं । मैंने तो सुना था कि दान-पुण्य करने वाले को स्वर्ग मिलता है ।‘‘ यमराज ने कहा - ‘‘देखो धनिक ! तुम दान-पुण्य तो करते थे किन्तु कालाबाजारी तथा बेईमानी भी करते थे । तुमने दान-पुण्य अपने गलत कामों को धोने के लिए किए थे । ईमानदारी से व्यापार करते हुए दान-पुण्य करता तो अवश्य काम आता । इसी तरह तुम्हारे दोस्त विद्वान ने भी प्रभु-प्राप्ति के लिए उपदेश जरूर दिए किन्तु बदले में भारी धनराशि भी ली । इस लिए तुम दोनों नरक के ही अधिकारी हो । किसान कम मित्र पढ़ा-लिखा जरूर था लेकिन उसने अनपढ़ों को पढ़ाया । अंधेरी गली में रोशनी की । मन्दिर में तो रोशनी पहले ही होती है । गरीब निर्धन होते हुए भी अपना काम ईमान से करता । इन दोनों के कार्य महान् हैं । इसलिए ये दोनों स्वर्ग के अधिकारी हैं ।‘‘ उन्होंने आगे कहा कि जो लोग दुखियों के दुख दूर करे, अंधों को को आंखें दे, पथभ्रष्ट लोगों को रास्ता दिखाए, वे ही स्वर्ग के अधिकारी हैं । वे लोग जो दिखावे के लिए कुछ करते हैं । अपने कुकर्मों को मिटाने के लिए पुण्य करते हैं । उन्हें तो नरक ही मिलेगा।

मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

कहानी - स्वाभिमान

एक समय की बात है । एक विद्वान किसी गांव में रहता था । वह पढ़ा-लिखा था, किन्तु गरीब था । धनवान लोगों के बारे में उसके विचार ठीक नहीं थे । उसका मानना था कि वे नासमझ, अहंकारी एवं व्यवहार के कठोर होते हैं । इसलिए वह विद्वान किसी भी धनिक के यहाँ नहीं जाता । केवल भिक्षा मांगता और अपने दिन काटता । उसकी पत्नी उसे कमाने के लिए रोज प्रताड़ित करती । एक दिन वह आजीविका हेतु प्रदेश चला गया । प्रदेश में संयोग से एक धनिक से भेंट हुई । विद्वान ने बहुत से श्लोक बनाए और धनिक की प्रशंसा में सुनाए । धनिक ने खुश होकर उसे अपने घर में रख लिया । विद्वान रोजाना सुबह-शाम, बोलते, लिखते तथा हर काम करते समय अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए धनिक की अंध प्रशंसा करता । विद्वान धनिक को सूर्य के समान प्रतापी, चन्द्रमा के समान कांतिवाला, वायु के समान पवित्र, अग्नि के समान शत्रुनाशक ओर भी न जाने किस-किस उपाधि से अलंकृत करता । विद्वान को प्रतिफल में कुछ नहीं मिला जबकि धनिक अपने यहाँ चरित्रहीन महिलाओ, नृतकियों तथा कलाबाजी दिखाने वाले लोगों का खूब स्वागत-सत्कार करता। एक समय आया कि विद्वान की हालत पतली हो गई। तब उसने विद्वान को क्रोध में आकर दो-तीन श्लोक सुनाए और अपने घर के लिए रवाना हो गया । घर आकर उसने अपनी पत्नी को सारी कहानी सुनाई । कई दिनांे बाद विद्वान जंगल से लकड़ी का बोझा अपने सिर पर रख कर ला रहा था । रास्ते में धनिक उसे मिला। उसने विद्वान को अभिवादन किया और लकड़ी ढोने का कारण पूछा । तब विद्वान ने कहा - हे धनिक । धनके लोभ में मैं तुम्हें ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, वायु आदि की उपाधि देता रहाा और तुम्हें दुनिया में सबसे सुन्दर, सर्वश्रेष्ठ, विद्वान कहता रहा । आज उसी झूठ का दण्ड भोग रहा हूँ । यह कहकर विद्वान चला गया

अपेक्षित शिक्षा प्रणाली

बालक का शारीरिक, मानसिक, नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक विकास कर उसको जीवन जीने के योग्य बनाना शिक्षा का मौलिक उद्देश्य होता है । बालक की रुचियों, मनोवृत्तियों तथा व्यवहार को परिष्कृत कर उसके व्यक्तित्व-निर्माण का साध्य है - शिक्षा। परीक्षा साध्य तक पहुँचने का साधन है । हम यह भी कह सकते हैं कि शिक्षा बालक के सर्वांगीण विकास का साधन और परीक्षा उसे पाने का माध्यम् है । आज का विद्यार्थी साध्य को भूलकर साधन को अधिक महत्त्व दे रहा है । केवल परीक्षा उत्तीर्ण कर उपाधि प्राप्त करना ही उसका ध्येय रह गया है । आज प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन की ऊँचाइयों का छुने के लिए भौतिकवाद की दौड़ में शामिल हो गया है । उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए उपाधि रूपी शैक्षिक योग्यता हासिल करना उसका प्राथमिक उद्देश्य बन गया है । मूलतः परीक्षा उत्तीर्ण करना शिक्षा नहीं है । शिक्षा तो बालक का सर्वांगीण विकास करती है उसे विद्या प्रदान करती है । आज की शिक्षा विद्याविहीन शिक्षा है । वह केवल किताबी कीड़ों की फौज तैयार कर रही है । वस्तुतः आज की शिक्षा मैकाले की शिक्षा पद्धति पर आधारित है । मैकाले ने कहा था -‘‘इस शिक्षा व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षित भारतीय रंग-रूप में तो भारतीय होंगे परन्तु मन-मस्तिष्क, चिन्तन और रहन-सहन के स्तर पर अंग्रेजी संस्कृति के गुलाम होंगे ।‘‘ आज हम उसी शिक्षा प्रणाली का अनुसरण कर रहे हैं । दर असल मैकाले की शिक्षा को शिक्षा मानकर हमने अपनी जड़ों को काटने तथा संस्कृति को विलुप्त करने की भूल की । हमने ज्ञान-विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा, उद्योग आदि अनेकों क्षेत्रों में प्रगति की है किन्तु भीतर से खोखले होते जा रहे हैं । हमने परम्परागत शिक्षा-स्रोत जिनमें परिवार एवं समाज के संतुलित निर्माण व विकास करने की क्षमता थी, को दरकिनार किया । हम शिक्षा के मूल तत्त्वों से हटकर साक्षर बनाने वाली वर्तमान शिक्षा के पीछे भाग रहे हैं । इस दिशाहीन शिक्षा के कारण भूखमरी, गरीबी, बेरोजगारी, सामाजिक असमानता, साम्प्रदायिकता, अपराध, आतंकवाद न जाने क्या-क्या समस्याओं से हम धिर गए हैं । अधूरी तथा तात्कालिक लाभ देने वाली शिक्षा जीवन में नैराश्य और हताशा ही ला रही है। आज की शिक्षा शिक्षित बना रही है किन्तु चेतन एवं संवेदनशील कितने बन रहे हैं ? शिक्षा में समर्पण का भाव नहीं है । धन कमाना शिक्षितों की प्राथमिकता बन गई है । हम शिक्षा की चकाचैंध में इस कदर खो गए हैं कि पीछे मुड़कर देखना ही नहीं चाहते । वर्तमान शिक्षा का ही दुष्परिणाम है कि आज विसंगतियां, विषमताएं, विदु्रपताएं तथा विडम्बनाएं बढ़ी हैं । आज के शिक्षित भ्रमित है और उसमें कुण्ठाएं पनपी हैं । ऐसा व्यक्ति मानसिक रूप से कैसे स्वस्थ रह सकता है ? आज जरूरत है शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की । भूमण्डलीकरण के इस दौर में सर्वांगीण विकास की पूर्ति करने वाली मौलिक एवं मूल्यपरक शिक्षा की आवश्यकता है ।

सोमवार, 30 नवंबर 2009

कविता - पापा मुझे पढ़ाओ ना

सही बोलना - लिखना मम्मी-पापा, मुझे पढ़ाओ ना ।
छोटे-छोटे वाक्य बनाना फिर तुम मुझे बताओ ना ।
गोल-गोल मोती से सुन्दर, अक्षर मुझे सिखाओ ना ।
अंक बड़े मुक्ता जैसे कैसे मैं लिखूं बताओ ना ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना ।।
काम करूँ सब सुथरा-सुन्दर, इसका राज बताओ ना ।
काट-छाँट नहिं करूँ लेख में, इसका मार्ग दिखाओ ना ।
रहूँ सदा मैं प्रथम क्लास में, इसका मार्ग दिखाओ ना ।
सौ में सौ लाऊँ मैं नम्बर, इसका भेद बताओ ना ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना
नई-नई बात बताकर, मेरा ज्ञान बढ़ाओ ना ।
अच्छी-अच्छी सीखें देकर, मेरा शील बढ़ाओ ना ।
पापा प्यारे, मम्मी अच्छी, दोनों मुझे पढ़ाओ ना ।
मुझे बनाओ शिष्य लाडला, तुम शिक्षक बन जाओ ना ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना ।।
अगर पढ़ाओ तुम दोनों तो, मैं दुनियां में नाम करूँ ।
बन कर ज्ञानी, गुणी, शीलसम्पन्न प्रगतिपथ पर पैर घरूँ ।
मेरे नगर- गांव की बढ़-चढ़ सब विधि सेवा सदा करूँ ।
दीन-दुखी हर विश्व मनुज के जीवन की मैं पीर हरूँ ।।
पापा मुझे पढ़ाओ ना ।।

रविवार, 29 नवंबर 2009

शैक्षणिक खेल

बालकों को दो समूहों में बाँट दें । उन्हें आमने-सामने खड़ा करदें । एक समूह के प्रत्येक बालक को क्रमिक संख्या आवंटित करदें । दूसरे समूह के प्रत्येक बालक को प्रथम समूह के अनुरूप ही संख्या आवन्टित करदें । फिर आवंटित संख्या मेंसे कोई एक संख्या बोलकर पहले समूह के उस संख्या वाले बालक को कोई शब्द अथवा किसी वस्तु का नाम बोलने को कहें । उस बालक ने शब्द अथवा वस्तु का नाम बोला है, उसी से मिलता जुलता शब्द अथवा वस्तु का नाम दूसरे समूह का उसी क्रमांक वाला बालक बोलेगा । सही का निर्णय शेष बालक करेंगे ।
उदाहरण - एक समूह के पांचवें क्रमांक वाले बालक द्वारा ‘कागज‘ शब्द बोलने पर दूसरे समूह के उसी क्रमांक वाला बालक ‘पैंसिल‘ शब्द बोलेगा ।
विलोम शब्द, लिंग, वचन, पर्यायवाची शब्द आदि के अभ्सास हेतु इस खेल को खेला जा सकता है ।