मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

कहानी - स्वाभिमान

एक समय की बात है । एक विद्वान किसी गांव में रहता था । वह पढ़ा-लिखा था, किन्तु गरीब था । धनवान लोगों के बारे में उसके विचार ठीक नहीं थे । उसका मानना था कि वे नासमझ, अहंकारी एवं व्यवहार के कठोर होते हैं । इसलिए वह विद्वान किसी भी धनिक के यहाँ नहीं जाता । केवल भिक्षा मांगता और अपने दिन काटता । उसकी पत्नी उसे कमाने के लिए रोज प्रताड़ित करती । एक दिन वह आजीविका हेतु प्रदेश चला गया । प्रदेश में संयोग से एक धनिक से भेंट हुई । विद्वान ने बहुत से श्लोक बनाए और धनिक की प्रशंसा में सुनाए । धनिक ने खुश होकर उसे अपने घर में रख लिया । विद्वान रोजाना सुबह-शाम, बोलते, लिखते तथा हर काम करते समय अपनी कला का प्रदर्शन करते हुए धनिक की अंध प्रशंसा करता । विद्वान धनिक को सूर्य के समान प्रतापी, चन्द्रमा के समान कांतिवाला, वायु के समान पवित्र, अग्नि के समान शत्रुनाशक ओर भी न जाने किस-किस उपाधि से अलंकृत करता । विद्वान को प्रतिफल में कुछ नहीं मिला जबकि धनिक अपने यहाँ चरित्रहीन महिलाओ, नृतकियों तथा कलाबाजी दिखाने वाले लोगों का खूब स्वागत-सत्कार करता। एक समय आया कि विद्वान की हालत पतली हो गई। तब उसने विद्वान को क्रोध में आकर दो-तीन श्लोक सुनाए और अपने घर के लिए रवाना हो गया । घर आकर उसने अपनी पत्नी को सारी कहानी सुनाई । कई दिनांे बाद विद्वान जंगल से लकड़ी का बोझा अपने सिर पर रख कर ला रहा था । रास्ते में धनिक उसे मिला। उसने विद्वान को अभिवादन किया और लकड़ी ढोने का कारण पूछा । तब विद्वान ने कहा - हे धनिक । धनके लोभ में मैं तुम्हें ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, सूर्य, चन्द्रमा, वायु आदि की उपाधि देता रहाा और तुम्हें दुनिया में सबसे सुन्दर, सर्वश्रेष्ठ, विद्वान कहता रहा । आज उसी झूठ का दण्ड भोग रहा हूँ । यह कहकर विद्वान चला गया

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